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रोज़ सुबह जब अपने कॉलेज जाने के लिए तैयार हो के नहा धो कर निकलता हूँ तो सबसे पहला मन में विचार आता है की काश कोई दिन ऐसा हो जब बिना धूल स्नान किये कॉलेज तक पहुँच सकूँ . मेरे घर से कॉलेज तक की दूरी मात्र ४ किल्लोमीटर है फिर भी ऐसा लगता है जैसे सहारा रेगिस्तान की यात्रा पे निकल रहा हूँ , कारन सिर्फ एक है , रस्ते इतने गड्ढे और धूल मिटटी भरे हैं की लगता ही नहीं की मैं उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हूँ . यूँ तो इंदिरा नगर में रहते करीब १० साल होने को आये हैं पर इन सालों में मात्र १० दिन ही साफ सुथरी बनी हुई सड़क देखने को मिली है . वो भी जब इलेक्शन का टाइम था, पर मन को सुकून पहुंचा था की चलो अब धूल , कीचड , गन्दगी से छुटकारा तो मिलेगा पर शायद पोलिटिकल आकाओं को मेरी ये प्रसन्नता रास नहीं आई …. या यूँ कह लें की उन्होंने सड़क बनाने के बाद ही उसके नीचे पानी के पाइप बिछाने की योजना बनाई थी . १० सालों में जो सड़क एक बार बनी थी वो फिर खोद के डाल दी गयी और मैं अब फिर मजबूर हो गया हूँ उस धूल और मिटटी वाली सड़क पर चलने के लिए. ये हाल सिर्फ मेरे इंदिरा नगर की कालोनी का नहीं है बल्कि पूरे उ.प्र का है . सडकें बन जाने के बाद ही शायद हमारी गवर्नमेंट को याद आता है की सड़क के नीचे का काम तो रह ही गया , अगर ये ग़लती गवर्नमेंट की नहीं है तो शायद उन अधिकारियो की है जिनका कोई काम प्लान बना के नहीं होता, जो सो सो के अचानक काम याद आने पे जाग जाते हैं . ऐसा क्यूँ होता है की सड़कें तैयार होने के १० दिन के भीतर ही उसे खोदने की ज़रूरत पड़ जाती है ?
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